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अगरिया जनजाति मे लोहा का क्या महत्त्व है ll

अगरिया जनजाति मे लोहा का क्या महत्त्व है 👇 अगरिया जनजाति में लोहा का बहुत महत्त्व है, क्योंकि यह जनजाति मूल रूप से लोहा पर काम करते है और कृषक भी है। लोहा उनकी जीवनशैली और अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं जो अगरिया जनजाति में लोहे के महत्त्व को दर्शाती हैं: 1. लोहारी का काम: अगरिया जनजाति के लोग मुख्य रूप से लोहारी का काम करते हैं, जिसमें वे लोहे को पिघलाकर और आकार देकर विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करते हैं। 2. कृषि के लिए लोहे का उपयोग: अगरिया जनजाति के लोग कृषि में भी लोहे का उपयोग करते हैं, जैसे कि हल, कुदाल, और अन्य कृषि उपकरण बनाने में। 3. शस्त्र निर्माण: अगरिया जनजाति के लोग लोहे से शस्त्र भी बनाते हैं, जैसे कि तलवार, भाला, और अन्य हथियार। 4. धार्मिक महत्त्व: अगरिया जनजाति में लोहे का धार्मिक महत्त्व भी है, क्योंकि वे लोहे को शक्ति और सुरक्षा का प्रतीक मानते हैं। 5. सांस्कृतिक महत्त्व: अगरिया जनजाति में लोहे का सांस्कृतिक महत्त्व भी है, क्योंकि वे लोहे को अपनी संस्कृति और परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं।

अगरिया जनजाति के पूर्व जनगणना आधारित कुछ आंकड़े (Some data based on pre-census of Agariya tribe)

 अगरिया जनजाति के पूर्व जनगणना आधारित कुछ आंकड़े 

वर्ष १८८१ में पूरे भारत वर्ष में अगरियो की संख्या 210918 मिली थी जिसमे सिर्फ 22957 मध्य प्रान्त में ही थे।  निश्चित रूप से वे खेती करनेवाले अघरिया समुदायों के साथ भ्रमित हो गए। 

वर्ष 1891 में जब मध्यप्रांत में जनगणना कमिश्नर सर बेंजामिन राबर्टसन थे तो अगरियों  की तीन वर्ग में गणना की गयी थी। 

गोंड आदिवाशियों के अंतर्गत अगरिया =0326 

लोहार अगरिया =2380 

लोहा बनाने वाले अगरिया =2470 

अगर इन आंकड़ों की बात करे तो 414 गोंडी अगरिया तथा लोहा गलाने वाले अन्य 242 की संख्या को भी जोड़ा जाना चाहिए। 

वर्ष 1891 पूरे प्रदेश में (सेन्ट्रल प्रोविंस ) में जहा कुल 84112 लोहार थे उसमे से 3070 व्यक्तियों को लोहा गलाने व बनाने के धंधे में लगा हुआ बतलाया गया था। सागर ,जबलपुर तथा दमोह जिलों में कोंडा गोंड (१२७४)  अगरिया और कही कही गोंड भी पाए जाते है। लोहार जाती में एक उपवर्ग था जो अगरिया कहलाता था जो मुख्य रूप से जबलपुर में पाए जाते थे। तथा सतपुड़ा  जिलों में गोंडी लोहारो संख्या 4679 थी।  ये दोनों प्रजातियां बहुत संभव है की लौह अयस्क एकट्ठा करने तथा उसे गलाकर लोहा निकालने के धंधे में लगे थे। लोहार अगरिया संभवतः अगरिया ही थे जो अपनी सामाजिक स्थिति का उन्नयन करने का प्रयास कर रहे थे। यह विचार लगता है जबलपुर जिले के अगरिया के दिमाग में आया होगा जो अपने आपको लोहार कहते थे। 

सन 1910 में जब आर.वी.रसेल जनगणना कार्य के प्रभारी थे तब उनके द्वारा  करवाए गए वर्गीकरण में अगरियों की संख्या 5832 से गिरकर मात्र 1604 रह गयी थी जिसके बारे में जानकारी बहुत  कम थी। 

सन 1911 में अगर बात करे तो अगरिया की संख्या में 90 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी थी। अब अगरियों की संख्या 9500 थी तथा इस संख्या में 276 महली तथा 129 असुरो को जोड़ने में शायद हम कोई गलती नहीं करेंगे। मेरे विचार में सिर्फ इसी अवसर पर मध्यप्रांत में असुरो को गणना में लिया गया है। 

इसके अलावा मराठा प्रधान जिलों के 8712 पांचाल तथा 451 सिकलीगर -लोहरो की एक शाखा जो विशेष तौर पर तलवारो को चमकाने तथा धार बनाने का काम करते थे तथा लोहरो की संख्या 181590  से कम  नहीं थी जो 1891 के आंकड़ों की तुलना में बहुत अधिक थी। 

वर्ष 1911 में यह संख्या एक बार फिर बहुत नीचे नीचे गिर गया। अब अगरिया की संख्या 3661 था जो पिछले गणना की तुलना में 61 प्रतिशत कम थी। परन्तु इसके सम्बन्ध में बताया गया है की इस 61 प्रतिशत कमी  प्रमुख कारन यह रहा होगा की वर्तमान जनगणना मात्र बिलासपुर तथा सरगुजा जिलों में ही की गयी होगी जहा अगरिया बहुतायत में पाए जाते है। हो सकता है अघरियों  साथ भ्रमित हो गए हो। 

अगरियों की गणना 1931 तक नहीं की गयी थी। 

संभवतः 1911 के आंकड़े जिसे रसेल ने अगरियों पर लिखे अपने लेख में लिया है वह सेन्ट्रल प्रोविंस में पाए जाने वाले कुल अगरियों के संख्या के बहुत समीप है सम्पूर्ण सही संख्या जानने के लिए हमें रीवा रियासत ,मिर्जापुर ,जहा 1909 में अगरियों की संख्या 1186 थी तथा बिहार  रहने वाले अगरिया प्रजाति के सदस्यों की संख्या भी जोड़नी चाहिए।  आज संभवतः समस्त अगरियों की संख्या 15000 के आसपास लगभग हो सकता है। 


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दशरथ प्रसाद अगरिया 

संचालक एवं सचिव 

राष्ट्रिय लौह प्रगलक         अगरिया  जानकारी जनगणना  आंकड़े 

अगरिया समाज महासंघ 

भारत 9340400780 

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