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अगरिया जनजाति मे लोहा का क्या महत्त्व है ll

अगरिया जनजाति मे लोहा का क्या महत्त्व है 👇 अगरिया जनजाति में लोहा का बहुत महत्त्व है, क्योंकि यह जनजाति मूल रूप से लोहा पर काम करते है और कृषक भी है। लोहा उनकी जीवनशैली और अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं जो अगरिया जनजाति में लोहे के महत्त्व को दर्शाती हैं: 1. लोहारी का काम: अगरिया जनजाति के लोग मुख्य रूप से लोहारी का काम करते हैं, जिसमें वे लोहे को पिघलाकर और आकार देकर विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करते हैं। 2. कृषि के लिए लोहे का उपयोग: अगरिया जनजाति के लोग कृषि में भी लोहे का उपयोग करते हैं, जैसे कि हल, कुदाल, और अन्य कृषि उपकरण बनाने में। 3. शस्त्र निर्माण: अगरिया जनजाति के लोग लोहे से शस्त्र भी बनाते हैं, जैसे कि तलवार, भाला, और अन्य हथियार। 4. धार्मिक महत्त्व: अगरिया जनजाति में लोहे का धार्मिक महत्त्व भी है, क्योंकि वे लोहे को शक्ति और सुरक्षा का प्रतीक मानते हैं। 5. सांस्कृतिक महत्त्व: अगरिया जनजाति में लोहे का सांस्कृतिक महत्त्व भी है, क्योंकि वे लोहे को अपनी संस्कृति और परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं।

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 असुर  भाग -१  


समुद्र मंथन के प्रारम्भ से देवताओ व दानवो के मध्य लम्बे समय समय तक चले आ रहे घमासान युद्ध को महाभारत में बहुत सुन्दर तरीके से चित्रित किया गया है इस महाकाव्य में बहुत सुन्दर तरीके से बताया  गया है की किस प्रकार सर्प को रज्जु बनाकर तब तक समुद्र मंथन किया गया जब तक उसमे से मंथन के कारन अनेक शुभ सुन्दर उपयोगी वस्तु न निकल आये जिन्हे ललचाई दृष्टि से देवता लोग हड़प जाना चाहते थे। इस प्रक्रिया  और दानव एक दुसरे के सामने थे। चंद्र और अमृत घट  पाने के लिए देवताओ और दानवो के मध्य विकराल संग्राम हुआ। तभी भगवान् विष्णु ने मायावी रूप धार कर दानवो को भ्रमित कर दिया और दानव हताशा में देखते रहे की समुद्र से बहुमूल्य  निकलकर उनके पास से जा रही है। ऐसी बीच दानवो के मध्य असुर राहू ने अमृत घट की कुछ बूंदो का स्वाद पान कर लिया है और इसके पहले की वह उन बूंदो को गटक पाता ,नारायण ने उसकी गर्दन धड़  दी।   राहु का सर एक तेज ध्वनि के साथ आकाश मे उड़ गया और भीषण गर्जना के साथ उसका धड ज़मीन पर गिरा जिससे पृथ्वी के सारे जंगल और पहाड़ काँप उठे l परन्तु अमृत पान के कारण राहु का सिर अमर हो गया l इसिलिय वह सूर्य और चन्द्रमा के बीच युद्ध करता रहता हैं l तथा शेष सभी असुरो का, जो देवताओ द्वारा किये गए मायावी षड़यंत्र से प्रभावित थे, जिसके कारण समुद्र मंथन से निकली अनेक बहुमूल्य वस्तुए उनसे छिन गयी, तभी से देवताओ के बीच शास्वत, निरंतर परिणाम विहीन युद्ध प्रारम्भ हो गया l

रिगवेद मे असुर शब्द सम्मान सूचक था, वरुण तथा इंद्र को असुर से ही सम्बोधन किया गया हैंl अग्नि भी एक असुर था तथा असुरो मे सर्वश्रेष्ठ रूद्र या शिव हैंपर आर्यो के सभी देवताओ मे एकमात्र रूद्र हैं, परन्तु स्वयं रिगवेद मे एवं बाद के पौराणिक ग्रंथो मे देवताओ एवं असुरो के मध्य शत्रुता के संकेत मिलने लगते हैं l धीरे धीरे असुर लोग आर्यो से अलग हो गए और वे दानव कहलाये जाने लगे, विचारों मे प्रतिकूल और शत्रु l रिगवेद काल के समाप्ति तक आर्यो ने आर्यो ने असुरो को पराजित कर दिया उन्हें दानावो की स्थिति तक ला दिया l

रिगवेद मे इस प्रकार के अनेको अन्य शत्रुओ को भी असुरो के समकक्ष रखा गया हैं l तथा उन्हें दैत्य दानव या दास कहा गया हैं l वे प्रायः नाकविहीन, काले, संस्कार हीन, देवताओ के प्रति विरोधी, श्रद्धा हीन तथा कानून का पालन नहीं करने वाले थे ll वे शिशन, शिवलिंग की पूजा करने वाले थे ll

अनेक अंशो मे. किये गए वर्णन के अनुसार कुछ शत्रुओ को विराट मानव स्वरुप दर्शाया गया हैं ll परन्तु अनेक स्थलों पर उन्हें मानव शत्रु भी बताया गया हैं ll और कई बार समझाया गया हैं की काले रंग के विरोधी शत्रु आदिम आदिवासी हैं जिन्होंने अनेको बार आर्यो के आक्रमण को रोका हैं और उनका विरोध किया हैं ll कीथ का मानना हैं की असुर देवताओ के शत्रु थे ll और दास तथा राक्षस मानव जाती के विरोधी थे परन्तु संभवतः असुरो तथा उनके सम कक्षी जिन्हे अनेको नामो से भी सम्बोधित किया गया हैं ll के मध्य अवश्य ही कोई गहरा वा ठोस अंतर नहीं किया जाना चाहिए ll

महाकाव्य तथा पुराणो के काल से सुरों तथा असुरो के मध्य चला आ रहा यह विकराल भीषण युद्ध कवियों तथा दर्शन शास्त्रीयो के कल्पना लोक तथा लेखन मे जीवित हैं ll जिसे हम वहा से अध्यन कर सकते हैं इसके अलावा विष्णु पुराण मे भी बहुत सारे उल्लेख मिल जाते हैं ll

जैसा की असुरो तथा उनसे जुड़े सम्बंधित दानवो से सम्बंधित पारम्परिक विचारो के बारे में सुझाव दिया गया की वे भारतीय आदिवासियों के पूर्वज थे।  इस धारणा को चुनौती देने वाले श्री शरतचंद्र राय थे , जिन्होंने सुझाव दिया था की की सारे विश्व में पाषाणयुग के आदि मानवो तथा नयी धातु का उपयोग  करने वालो के मध्य चल रहे संघर्ष का ही प्रतिबिम्ब था जिन्हीने आक्रमण करके ,पुरानी परंपरा को तहसनहस कर उनकी शांति भंग कर दी थी उन्होंने इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित किया है की -मुंडो में तथा छोटा नागपूर के आदिम आदिवासी समूहों में पारम्परिक रूप से ,देश के आदिम पेशे वाले को धातु का उपयोग करने वाले समुदायों द्वारा असुर कहा जाता था। ऐसा इसलिए कहा जाता था क्योकि मुंडाओं  ने अपने आराध्य देव् सिंगबोंगा की सहायता से धातु का प्रयोग करने वाले को नष्ट करदिया था। परंपरा कहती है की असुरो के द्वारा धातुओं को पिघलाने की गतिविधिया काफी प्रभावित हुई थी। यह मुंडाओं और अन्य देवी -देवताओ के रहते हुआ था जो धातुओं के उपयोग तथा उसकी उत्पादन प्रक्रिया के बारे में पूर्णतः अनभिज्ञ थे। 

श्री राय ,इसके साथ ही ईटों के बने ,अनेक प्राचीन भवनों  खंडहरों का भी उल्लेख करते है जिसमे बहुत से अन्य वस्तुए भी प्राप्त हुई थी विशेषकर पक्की ईंट से बनी हुई। और इसके समीप ही ताम्बे और लोहे के उपयोग में लाये जाने के भी प्रमाण प्राप्त हुए है। ये भवन प्राचीन असुरो के ही माने गए है। इसके साथ ही ही बहुत प्राचीन कब्रे भी प्राप्त हुई है। जिनमे नवपाषाण तथा ताम्बे के बने उपकरण व औजार प्राप्त हुए है।  इन तथ्यों के आधार पर श्री राय लोहा गलाने वाले असुरो तथा आधुनिक अगरियों के अस्तित्व को सम्बंधित बताते है। श्री राय इस विचारधारा से भी बहुत अधिक प्रसन्न नहीं है वास्तव में वे विशेष रूप से बतलाते है की यद्यपि मुंडा परंपरा के अनुसार ,असुरो ने छोटा नागपुर क्षेत्र में सबसे पहले लोहे का उपयोग आरम्भ किया था। परन्तु असुरो के कब्रों के सिवाय थोड़े से छल्ले ,चूडिया तथा तीरो के शीर्षो के अलावा लौह निर्मित अन्य चीजे कम ही प्राप्त हुई है। भवन निर्माण के स्थलों पर चाकू ,खुखरी ,हसियो के अलावा थोड़े से लोहे के बने भाले तथा तीरो के शीर्ष ही प्राप्त हुए है। मुंडा परंपरा में असुरो के साथ तीन विभिन्न युगो के प्रमाण मिलते है वे है -पाषाण युग ,ताम्बा युग ,तथा प्रारंभिक  लौह युग।  

इसके विपरीत अगरिया परंपरा इस मत को जरा भी आधार नहीं देती है की आज के अगरिया -असुर ,पूर्व असुरो के ही वंशज है  भी पुरानी परंपरा के असुरो के व्यवसाय को आज अपना रहे है।  प्राथमिक रूप से नामो में सभ्यता है। यही नाम  व छोटा नागपुर के आदिवासियों को  बल्कि सरगुजा और बिलासपुर में पाए जाने वाले अगरियों की उपशाखा को भी मिटा दिया जाता है बल्कि अगरियों के द्वारा माने जानेवाले लोहे की भट्ठी का देवता लोहासुर ,कोयले का देवता कोयलासुर तथा अग्नि के देवता आज्ञासुर को भी दिया गया है। 

फिर संस्कृत पुराणों में उल्लेखित असुरो की वही स्थिति या स्थान है जैसा की परंपरा सारे विश्व में लोहरो को दी गयी है यूरोप की परियो  देव् पाषाण युग से सम्बंधित है। असुर , लोहरो की तरह नए अशांति ,फैलाने वाले ,लोहे का युग लाने वाले शत्रु ही है।  यही एक मात्र वास्तविक कारन है की अनादिकाल से देवताओ तथा असुरो के मध्य चिरप्रतिद्वन्दिता बानी हुई है। 

इस चिरप्रतिद्वन्दिया की अनेको प्रतिध्वनिया ,अगरिया किवदंतियो में उपलब्ध है। जैसे विष्णु ने समुन्द्र मंथन के अवसर पर निकलनेवाली अनेक बहुमूल्य वस्तुओ को प्राप्त करने में असुरो को धोखा दिया था। उसी प्रकार भगवान् ने प्रथम अगरिया राजा लोगुंडि को भी धोखा दिया था और उनके नगर को  नष्ट कर दिया था  उसी प्रकार अर्जुन तथा अन्य पांडव भाइयो ने असुरो के विरूद्ध युद्ध किया था तथा उनके किलो पर अधिकार कर लिया था।  वैसे ही भीमसेन के नेतृत्व में पांडवो ने लोहरीपुर पर आक्रमण कर उसका विनाश कर दिया था। जिस प्रकार असुर राहु हमेशा सूर्य को ग्रषित करने के लिए लालायित रहता है। वैसे ही अगरिया ज्वालामुखी भी हमेशा तैयार रहता है  तथा कम से कम मंडला जिले में   सूर्य की किरणों या धुप में बैठकर लोहे  का काम करना पूर्ण निषेध है। 

भूगोल इसमें हमारी थोड़ी सी सहायता कर सकता है  परन्तु यहाँ रयूबेन के अनुसार यह बताना उचित होगा की जबलपुर के समीप असुरो के धातुओं से निर्मित तीन किले थे  तथा नर्मदा नदी के ऊपरी इलाको में विशेष रूप से  अगरियों का आधिपत्य था।  इसीलिए इस प्रदेश को पौराणिक असुरो का  गढ़  माना जाता है।  असुरो के द्वारा निर्मित लौह दुर्ग का उल्लेख ऋग्वेद  है। 

 

असुर के बारे में भाग -2 अगले चैप्टर में जानेगे। . 


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