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अगरिया जनजाति मे लोहा का क्या महत्त्व है ll

अगरिया जनजाति मे लोहा का क्या महत्त्व है 👇 अगरिया जनजाति में लोहा का बहुत महत्त्व है, क्योंकि यह जनजाति मूल रूप से लोहा पर काम करते है और कृषक भी है। लोहा उनकी जीवनशैली और अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं जो अगरिया जनजाति में लोहे के महत्त्व को दर्शाती हैं: 1. लोहारी का काम: अगरिया जनजाति के लोग मुख्य रूप से लोहारी का काम करते हैं, जिसमें वे लोहे को पिघलाकर और आकार देकर विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करते हैं। 2. कृषि के लिए लोहे का उपयोग: अगरिया जनजाति के लोग कृषि में भी लोहे का उपयोग करते हैं, जैसे कि हल, कुदाल, और अन्य कृषि उपकरण बनाने में। 3. शस्त्र निर्माण: अगरिया जनजाति के लोग लोहे से शस्त्र भी बनाते हैं, जैसे कि तलवार, भाला, और अन्य हथियार। 4. धार्मिक महत्त्व: अगरिया जनजाति में लोहे का धार्मिक महत्त्व भी है, क्योंकि वे लोहे को शक्ति और सुरक्षा का प्रतीक मानते हैं। 5. सांस्कृतिक महत्त्व: अगरिया जनजाति में लोहे का सांस्कृतिक महत्त्व भी है, क्योंकि वे लोहे को अपनी संस्कृति और परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं।

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यह सत्य बात हैं की असुरो तथा लोहे के मध्य गहरा और करीबी सम्बन्ध नहीं रहा हैं परन्तु थोड़ा बहुत सम्बन्ध तो हैं ही ll श्री राय हमें बताते हैं की क़िस प्रकार मुंडा समुदाय के लिए प्राचीन भयानक लम्बे चौड़े असुरो को पुंडी या सफेद रंग के लोगो को भव्य, बालिष्ठ तथा चंचल बताया गया हैं l जो की सिर्फ एक रात मे लम्बे लम्बे डग भरकर सैकड़ो मील दूसरे गांव मे नृत्य मे भाग लेकर, सुबह होने से पहले वापस अपने घर लौट आते थे ll ऐसा कहा जाता हैं की वे ईंटो से बने बड़े भव्य मकानों मे रहा करते थे तथा अधिकांश समय ताम्बा या लोहा बनाने मे व्यस्त रहा करते थे और परंपरा यहाँ तक बतलाती हैं की वे लोहा खाते थे और अपनी तेज फूंक से आग आग प्रज्वलित कर लिया करते थे ll इस प्रकार लोहा खाने की शक्ति पहले अगरिया चारित्रिक विशेषता थी ll इस प्रकार आगयुक्त अनेको प्रकार के खाने तथा उनके विशर्जन की अनेको तथा किवदान्तियो मे वर्णित की गयी हैं ll इसके विपरीत रयुबेन का कहना हैं की आग खाने की कथाये संस्कृत साहित्य मे वर्णित असुरो के साथ नहीं जुड़ि हैं ll
इसके बाद के काल मे, विशेसकर पुराणो तथा महाकाव्य मे हम लौह राक्षसों के बारे मे सुनते हैं l इसलिए हमें महाभारत मे लोहे के बने चार राक्षसों के बारे मे पढ़ते को मिलता हैं जिन्होने एक ऋषि के कहने पर एक दुराचारी राजा को दण्डित किया था l वे लोहे के मुखवाले राक्षस थे तथा एक राक्षस का तो सारा सर लोहे का बना था जो अहाय सिरास कहलाता था तथा लोहे का बाण रखने वाला एक अन्य राक्षस आहय शंकु कहलाता था, लोहा जाँढा नामक राक्षस का वध कृष्ण द्वारा किया गया था ll
विष्णु पुराण मे हमें पढ़ने को मिलता हैं की क़िस प्रकार ऋषि गर्गय ने एक पुत्र वरदान पाने के लिए, शिव की घोर तपस्या की l एक ऐसा पुत्र जो मथुरा के राजा से पराजित ना हो, क्योंकि मथुरा वासियो ने पुत्र हीन होने पर उसका मज़ाक उड़ाया था, शिव की कठिन तपस्या -आराधना के रूप मे लोहा खाने का वर्णन मिलता हैं l संत का पुत्र काले चेहरे वाला कालवयन था जो कृष्ण का घोर शत्रु था 

लिंग पुराण... मे भी पांच विभिन्न धातुओ से निर्मित शिवलिंगो का उल्लेख मिलता हैं लिंग पुराण मे यद्यपि विशेष रूप से असुरो का उल्लेख नहीं हैं परन्तु उन्हें लिंगो की पूजा करनेवाला बतलाया गया हैं l जो प्राचीन असुरो की एक प्रमुख विशेषता थी ll इस पुराण मे असुरो को नीलकमल की पत्तियों की तरह गहरे रंग का होना बताया गया हैं ll
किसी ने भी इस समस्या का डॉ. रयुबेन के अतिरिक्त इतनी गंभीरता और शूक्षमता से अध्ययन नहीं किया ll
डॉ रयुबेन का कहना हैं की भारत हैं की भारत मे दानावो की प्रचलित पौराणिकता हमें लोहा गलाने वाले पुराने लोहारो के माध्यम से ही मिलता हैं ll लोहा गलाने तथा लोहे के औजार बनाने वालों के रूप मे वे भयानक अपराधी तथा पड़ोसियों के लिए संदेह पैदा करने वाले प्रतीत होते हैं l उन्हें मायावी विद्या तथा टोना टोटका करने वाला माना जाता था इसलिए माया के प्रति लगाव तथा असुरो को हेय दृष्टि से समझा जाना कोई भी अच्छे से समझ सकता हैं ll इसके अतिरिक्त भैस गिद्ध तथा साँपो की सहायता से माध्यभारत की पहाड़ियों मे टोना टोटका करने वाले थे ll जो असुरो के एक श्रोत के रूप मे थे तथा बुरी आत्माओ की उपश्थिति सीधे साधे वा भोले लोगो को मायावी तरीके से उलझती हैं l यह विचारधारा बहुत आदिम और ऊँचे तारीको से पूरे यूरेशिया मे विधमान थी ll
सबसे प्रमुख समस्या यह हैं की आदिवासियों मे प्रचलित असुर नामो की, क्या रिगवेद सभ्यता मे देवताओ के तुल्य कहे जाने वाले असुर से कोई सम्मयता हैं हैं अथवा नहीं l रयुबेन के कहना हैं की मेरे विचार मे यह कहना पर्याप्त नहीं होगा की आर्य लोग, असुरो को दानवो या राक्षसों के रूप मे सिर्फ उनके लोहार व्यवसाय के कारण ही इस नाम से सम्बोधित करते थे ll तथा आर्यो के साथ रहने वालों ने अपना नाम असुर सिर्फ इसलिए स्वीकार कर लिया था क्योंकि वे इस शब्द का अर्थ समझते नहीं थे l इस धरना को मान लेने से समस्या बहुत सरलता से सुलझ सकती हैं परन्तु विश्व इतिहास इतना सरल नहीं हैं, और कौन से लोग अपने लिए असुर नाम इतनी सरलता से स्वीकार लेंगे l क्या इन दोनों नामो मे कोई समान्तरता हैं ll
यह भी कहना बड़ा सरल हैं की ऋगवैदिक कालीन असुर और बाद मे कहलाये जाने वाले असुरो के मध्य कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं हैं और यह दोनों नाम अलग अलग भाषाओ मे सयोंग से एक से प्रयुक्त किये गए हैं ठीक वैसे ही जैसे बेबीलोनीया मे असुर कहलाये जानेवाले भले उच्चारण मे असुर से प्रतीत हो परन्तु नामो ने कोई सम्बन्ध नहीं हैं ll इन विचारों या विचारधारओ मे एक तथ्य और जोड़ा जा सकता हैं की पुराने असुरो के प्राचीन भवनो को सिर्फ नाम की एकरूपता होने के कारण आर्यो द्वारा असुरो को स्वीकार कर लिया गया हैं ll परन्तु यह सबसे पहले आर्यो द्वारा ही नहीं बल्कि गांगे प्रदेश मे. रहने वाले मुंडो ने भीकैसे स्वीकारोति की हैं कीसी को कैसे इस बात का ध्यान देना चाहिए की आजकल के मुंडा लोगो ने कैसे असुरो की पौराणिकता मे उल्लेखित दानावो को ही असुरो के रूप मे. मान लिया हैंके आगे वो ये भी कहते हैं की ज़ब वे लोग मुंडा इस गांगे प्रदेश मे पहली बार आये थे, तब इस क्षेत्र मे असुरो को को पाया परन्तु इस बात को स्वीकार करना कठिन हैं की असुरो को दानव या राक्षस के रूप मे स्वीकारने की बात उन्होंने आर्यो से सीखी और उन्होंने यह शब्द असुरो के लिए प्रयुक्त किया जिन्होंने ने गलती या अज्ञान्ता के कारण अपना नाम ऋग्वादिक असुरो के सामान रख लिया था ll

आज ये कहा जा सकता हैं की इस शब्दार्थ का परिवर्तन भारत मे काफ़ी बाद प्रमुख ऋग्वादिक कव्यों की रचना के समय पर हुआ हैं केवल उस समय ज़ब देवताओ की आराधना करनेवाला वर्ग या समूह असुरो को मानने वाले समूह पर विजय घोषित कर दिया गया ll इसके पहले ये दोनों समूह शांति भाव से मिलजुल रहा करते थे ll
इसके आलावा कई अन्य तथ्य आपको रिगवेद मे मिलेंगे जिसका अध्ययन आप कर सकते हैं ll
ऐसे मे कोई भी आपत्ति उठा सकता हैं की क़िस प्रकार यह साधारण आदिवासियों के समुदाय को अचानक इतना महत्त्व मिलने लगा l कोई भी जिसने भारत की यात्रा की हो तथा पुष्कर झील, मंदार पर्वत, विंध्यवासिनी मंदिर देखा हैं वह यह देखकर आश्चर्य चकित हो जाता हैं की यह छोटी छोटी जगह भी भारतीय पौराणिकता मे कितनी प्रसिद्ध हैंकरें 
🖕🖕🖕🖕🖕🖕🖕(लौह पत्थर)


सबसे कठिन प्रश्न यह हैं की प्राचीन असुरो को किसप्रकार की सांस्कृति से जोड़ा जाय ll प्राचीन असुर प्रधानतः शिव उपासक थे ll
निश्चित रूप से अधिक विश्वास से उत्तर देना तथा डॉ रयुबेन ने इस समस्या का निराकरण दिया हैं l जिसके सम्बन्ध मे हमारे पास बहुत विश्वासनीय प्रमाण नहीं हैं, परन्तु कम से कम कुछ संकेत तथा थोड़ी बहुत जानकारी हैं की आधुनिक असुर तथा उनके समीपस्थ इलाको मे रहनेवाले पड़ोसी तथा वर्तमान अगरिया तथा असुरो मे धातुओ का काम करने वाले आदिवासियों तथा उसके वंशज के पूर्वज असुरो से सम्बंधित हैं ll
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